अक्सर अध्यात्म के विषय में मन में अनेकों संशय उत्पन होते हैं। होते उन्ही के मन में हैं जो इस यात्रा पर नहीं चला। जो चल पडा वह तो संशय की सीमा लांघ गया। उसे दिशाहीनता का भ्रम तो हो सकता है, संशय नहीं। तो सवाल यह है कि संशय का वास है कहाँ। बहुत सरल उत्तर है – हमारी नकारात्मक सोच में।
चर्चा कर रहा था पुनः गीता जी के पठन की। भगवान कृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि अज्ञानी सदैव ही ज्ञानी को संसार व सांसारिक कार्यों में लिप्त देखता है। पर ज्ञानी जानता है कि वह अपने शरीर व सांसारिक वस्तुओं का उपभोग कर रहा है अपभोग नहीं। कमल (ज्ञानी), कीचड (संसार) में है पर कीचड (सांसारिकता) से लिप्त नहीं। जीवनोपयोगी जल भी वह उसी संसार से ही प्राप्त करता है पर उस जल (मोह-माया) में गीला नहीं होता।
ज्ञान और अज्ञान के बीच केवल एक नकारत्मक सोच का अंतर है। ईश्वर यहीं हमारे अंदर (अंतर) में बसते हैं और हम बाहर खोज रहे हैं। अपनी दृष्टि अंतर में कैसे ले जाएँ? मैं तो इतना ही कह सकता हूँ एक बार बेजी का लिखा लेख प्यार जरूर पडे। जब तक अंतर में प्रेम का संचार नहीं तो कुछ नहीं।
शुभमस्तु