Thought of the day

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Tuesday, April 19, 2011

गर यही जीना है तो...

गर यही जीना है दोस्तो तो फिर मरना क्या है...

पहली बारिश में ट्रेन लेट होने का फिक्र है
भूल गए भीगते हुए टहलना क्या है
सीरियल के किरदारों का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछने की फुर्सत कहाँ है...
अब रेत पर नंगे पाँव टहलते क्यों नहीं
108 हैं चैनल पर दिल बहलते क्यों नहीं
इंटरनेट से दुनिया में तो टॅच में हैं
लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं
मोबाइल लैण्डलाइन सबकी भरमार है
लेकिन जिगरी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं
कब डूबते हुए सूरज को देखा था याद है?
कब जाना था, शाम का गुजरना क्या है...

तो दोस्तो शहर की इस दौड में, दौड कर करना क्या है...

गर यही जीना है तो मरना क्या है... 


उपरोक्त पंक्तियाँ हिन्दी फिल्म "लगे रहो मुन्ना भाई" से उद्धरित हैं। यहाँ केवल उन लोगों की सुविधा हेतु डाला जा रहा है जो इन पंक्तियों को लिखित रूप में ढूँढ रहे थे। या उन लोगों के लिए जिनके जीवन में यह पंक्तियाँ कुछ रचनात्मक-सृजनात्मक बदलाव ला सकें। किसी को आहत करने का हमारा कोई प्रयास नहीं है। 

Saturday, December 15, 2007

आज मन फिर लौट चला है

आज मन फिर लौट चला है, उस बीहड जंगल की ओर
जहाँ कभी था घर भी मेरा, नदिया बहती थी पीपल की ओट

वहीं पास इक खण्डहर भी है, कह्ती थी दादी सुन मान
यहाँ कभी सभ्यता होती थी, आज बनी है इक शमशान

वो नदिया जो सूख गई है, बह्ती थी उसमें जलधारा
मानवता का था जल था उसमें, सदाचार थे दो किनारा

मानवता के जल से सींची, थी पास एक सुन्दर क्यारी
प्रेम-पुष्प को चुन चुन कर, पूजा करती थी इक नारी


पर मानव का मन था मैला, उसने घोला विष का थैला
वो नदिया जो अमृत देती थी, हुई श्याम वर्ण जल हुआ विषैला

मानवता को लालच आया, सदाचार छोड पाँव बढाया
भूमि-भूमि पर बढता जाता, प्रेम-वाटिका में भी विष आया

प्रेम-वाटिका के सब फूल, बन गए राग-द्वेष के शूल
पूजन को जो भी था जाता, वही शूल बस लेता जाता

सुर-लोक में हुई विचित्र क्रांति, असुर जीते सब भांति-भांति
देवों ने जब आसन छोडा, सबने भू से भी मुख मोडा

फिर मेरी दादी सकुचाई, उन पर इक चुप्पी सी छाई
मैंने भी जब बहुत टटोला, दादी ने इक भेद यह खोला

वो नारी जो फूल चुनती थी, वो तेरी माँ जन्मभूमि है
आज भी वह वहीं पडी है, बस अपनी ज़िद्द पर अडी है

आएगा बेटा कोई उसका, काटेगा जो कँटीली डार
जल विषैला लौट जाएगा, प्रकट होगा फिर सदाचार

Tuesday, November 13, 2007

जागता हूँ मैं

जागता हूँ क्यों इस रात के
मध्य में, मैं जानता नहीं
शायद जो कहती है यह मुझसे
मैं उसे मानता नहीं

कहती है यह, खो जा तूँ
मधुर सपनों में कहीं
देख दुनिया प्यारी सी
जहाँ खंजर गए भौंके नहीं

कहती है चमकती रेत को
तूँ मान दरिया पानी का
बस यूँ ही गिर जाएगा
अब पर्दा तेरी कहानी का

पर जागता हूँ मैं
बस जागता हूँ मैं

गर मरुभूमि ही है मेरी
कर्मभूमि तो यही सही
पर्दा उठाना या गिराना
मुसाफिर हाथ मेरे कुछ नहीं

कुछ हाथ मेरे है अगर तो
चँद लकीरें हाथ की
माथे से टपकता यह पसीना
या साज़िश इस कायनात की

बढ रहे हैं ये कदम
इसलिए की जान लूँ
जो बह रहा माथे से मेरे
पसीना न केवल मान लूँ

लो बह चली गंगा ए शिव
तेरे बदन कठोर से
बन जाएगी नव-जीवना
बह जाएगी जिस ओर से

जागता हूँ क्यों इस रात के
मध्य में, मैं जानता नहीं
शायद जो कहती है यह मुझसे
मैं उसे मानता नहीं

Wednesday, November 7, 2007

क्या माँगू माँ तुमसे आज ...

जगमग जगमग दीप जले हैं
दीपों से उत्साह चले है
देखूँ जिस ओर भी आज
कौतूहल का ही है राज
क्या माँगू माँ तुमसे आज ...

रात अमावस मन हर्षाए
पूनम सी मादकता लाए
देखूँ जिधर माँ तूँ मुस्काए
कर लो अब बस तुम स्थिर वास
क्या माँगू माँ तुमसे आज ...

ज्ञान तुम्ही विज्ञान तुम्ही हो
मन को भरमाता अज्ञान तुम्ही हो
वो माया जो छल छल जाए
उस माया की माया भी हो
खोलो हृदय पटल तो आज
क्या माँगू माँ तुमसे आज ...

उल्लूक की करो सवारी
मत आना यूँ हे माँ प्यारी
घर मेरा मंदिर हो जाए
माँ जब तूँ गरुड पर आए
हे माँ विष्णु संग बिराज
क्या माँगू माँ तुमसे आज ...

Sunday, October 28, 2007

क्षमा याचना

क्षमा करें प्रभु दोष ये मेरा
मैं हूँ बालक अवगुण का ढेरा
आए तुम ना देखा तुमको
माया से भरमाया मन मेरा

चली पवन जो वो तुम ही थे
उसमें जो जीवन वो तुम ही थे
थे बादल तुम, रंग केसरिया तुम थे

फूल फूल को जाती तितली
हे निर्गुण वो तितली तुम थे

वो भंवरे जो फूलों पर मंडराए
सब दिशा की खुशबू लाए
वो फूल, वो भंवरे, वो खुशबू तुम थे

दर्शन को वो प्यासी अँखियाँ
वो नाम तेरे, चिडियों की सरगम
हे नाथ मेरे वो तुम ही तुम थे

बुझ गए दीपक, छुप गए तारे
अंधेरों मे आशा के द्वारे
वो जलते बुझते दीपक तुम थे

लेकर नई आशा का सूरज
हुई प्रभात तो जगमग तुम थे

तुम हो मैं ही, मैं भी तुम हो
बनकर शंका बैठा जो मन में
वो निराधार वो निर्गुण तुम थे

तुम थे पर न देखा तुमको
आँखों को छलती माया भी तुम थे
तुम ही तुम हो, तुम ही तुम थे

होगा दोष कुछ मेरा ही स्वामी
जो तुम मेरी आँखों से गुम थे

क्षमा करें प्रभु दोष ये मेरा
मैं हूँ बालक अवगुण का ढेरा

Thursday, October 25, 2007

जीवन तुम क्या हो

सोच रहा हूँ बैठा इस पल, कि जीवन तुम क्या हो?

कहते हैं कुछ तुम्हें छलावा, आज मिले हो बिछुडोगे कल
किंतु तुम जो आज साथ हो, कल भी मेरे ही साथ थे
संध्या बीती रात आएगी, हम तुम दूर जाएँगे इक पल
लौट आएगा पुनः सवेरा, तुम मिलोगे बस अगले पल
बदल गया जो रूप भी मेरा, भूलूँगा मैं तुम न भूलोगे
जीवन तुम तो अनंत सखा

मधुर-कटु जो अनुभव हैं यह, कहते हैं कुछ तुमने दिए हैं
पर फल जो खा रहा हूँ, बो आया था
और बीज कुछ बो चला हूँ
घटा छा रही है जो श्यामल, उसके आँचल में है प्राणजल
जाऊँगा जो अब मैं यहाँ से, आना उपवन में अगले पल
होंगे फल तब नए वृक्षों पर
कुछ कडवे, कुछ खट्टे-मीठे, तो होंगे कुछ अति मधुर
फिर जीवन तुम कहाँ दोषी हो, तुम तो बस इक दर्पण हो!

सुनो ‘मुसाफिर’ बात हमारी, समझ रहा हूँ व्यथा तुम्हारी
की मानव ने कितनी उन्नति, भूल गया बस उलटी गिनती
इक शून्य है केन्द्र तुम्हारा, उसे खोजना, उसको पाना

निकल सके हो अगर सफर में, अब नहीं खोना तुम्हें अधर में
देख रहे हो जो ये मेले, सुख-दुःख के जो लगे हैं रेले
ये बस तुम्हें घुमाएँगे, जाओगे तुम कहीं ‘मुसाफिर’ तुम्हें वहीं ले

तोड सकोगे जब यह बन्धन, तब तुम मुझको पाओगे
देखोगे जो रूप तुम मेरा, बस चकित रह जाओगे
न सखा हूँ, न दर्पण हूँ, मैं तो बस एक मार्ग हूँ
जाता हुआ क्षितिज की ओर
जिस पर चल कर पा सकते हो, तुम सफ़र का अंतिम छोर।

Monday, October 15, 2007

गर मैं न होता

सोचता है मुसाफिर बैठ कर ज़िन्दगी के दोराहे पर
गर मैं न होता तो क्या होता ज़िदगी का मंज़र

सुन ए बेपरवाह ज़िंदगी तूँ मुझ बिन अधूरी है
न होता मैं तो कहाँ जाते ये ज़ख्म ये फफोले दिल के
ढूँढती तूँ कितने जिस्म देने को इतनी ठोकरें दिल की
कौन कहता तुझे, और करता मिन्नतें रोज़ मिलने की

वो रूठ जाना तेरा मुझसे बात-बात पर
और मना कर लाना तुझे मेरा वो शाम-ओ-सहर
ज़रा तूँ चल तो दो कदम बगैर मेरे ज़रा
पाएगी मोल तेरा कौडियों के भाव गिरा

न मैं होता तो न होती ज़माने भर में खुशी
न संभालता नफरतें तो रहती कहाँ बेचारी खुशी
खुदा चाहिए शुक्र तूँ भी मेरा अदा करे
कि शैतान बैठा दबा है मेरे हौसलों के तले

सोचता है मुसाफिर बैठ कर ज़िन्दगी के दोराहे पर
गर मैं न होता तो क्या होता ज़िदगी का मंज़र

Saturday, October 13, 2007

पिञ्जरे का पञ्छी

कैद हूँ पिंजरे में इक पञ्छी की तरह
उठ मेरे हौंसले कुछ राह तो बता

हारा हूँ जो मैं गम से तो हार नहीं है
बुलंद हौंसलों के आगे दीवार नहीं है


जो बाँध रहा हैं मुझको, वो यह पिंजरा नहीं है
जो बिखरा है टूटा सा, वो मेरा विश्वास नहीं है

बांधा है खुद ही मैनें, जिसे पाँव में अपने
कहते हैं कुछ ज़ंज़ीर, पर ज़ंज़ीर नहीं है


जो तडपता हूँ पल पल, दिल में गम नहीं है
शायद अपने हालात को मैंने समझा ही नहीं है
टकरा-टकरा कर बेदिल पिञ्जरे की सलाखों से
घायल हुए हैं पंख, काश हौसला तो नहीं है


आ न सकूँगा का बाहर यह जानता हूँ मैं
फिर क्यों उसी पिञ्जरे से लडे जा रहा हूँ मैं
हूँ मुश्किल में, पर इतना भी लाचार नहीं हूँ
कैद का ही जीवन पर बेकार करूँ क्यूँ


गाता हूँ जिस कण्ठ से वो मेरा ही सही
क्या दे रहे हैं तेरे दर्द को आराम वो कहीं
ये मेरा फडफना और बच्चों का झूम जाना
नहीं है खुला आकाश पर कुछ कम भी तो नहीं

जो जी रहा है दिल वो स्वर है मेरा
जो दौडता स्वछंद वो फडफ़डाना है मेरा
शायद अब इस पिञ्जरे को भा गया हूँ मैं
आज भी हूँ अन्दर, पर बाहर आ गया हूँ मैं

Friday, October 12, 2007

तो कुछ और अच्छा होता

बाद मुद्दत के यह एहसास मुझमें जागा है
जो रहता मैं नादान तो कुछ और अच्छा होता


देखकर इंसानों में बढती हैवानियत,
यह एहसास मुझमें जागा है

जो न होता मैं इंसान तो कुछ और अच्छा होता

वो जो करते से मुझसे देवों की बातें
बदले बदले कर्मों से स्वर्गों की बातें
न बनते वो हैवान, तो कुछ और अच्छा होता


वो जो निकले हैं हर गली हर चौराहे पर
देने को सज़ा मेरे कर्मों की
जो न बनते वो भगवान, तो कुछ और अच्छा होता


होता अच्छा जो न पढता मैं भी कुछ पोथियाँ
उल्झी रहती कुछ सुलझी-अनसुलझी सी गुत्थियाँ
या लगता सब करिश्मा, या लगता सब तमाशा
जो रहता मैं नादान तो कुछ और अच्छा होता


बाद मुद्दत के यह एहसास मुझमें जागा है ...




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