Thought of the day

Monday, October 15, 2007

गर मैं न होता

सोचता है मुसाफिर बैठ कर ज़िन्दगी के दोराहे पर
गर मैं न होता तो क्या होता ज़िदगी का मंज़र

सुन ए बेपरवाह ज़िंदगी तूँ मुझ बिन अधूरी है
न होता मैं तो कहाँ जाते ये ज़ख्म ये फफोले दिल के
ढूँढती तूँ कितने जिस्म देने को इतनी ठोकरें दिल की
कौन कहता तुझे, और करता मिन्नतें रोज़ मिलने की

वो रूठ जाना तेरा मुझसे बात-बात पर
और मना कर लाना तुझे मेरा वो शाम-ओ-सहर
ज़रा तूँ चल तो दो कदम बगैर मेरे ज़रा
पाएगी मोल तेरा कौडियों के भाव गिरा

न मैं होता तो न होती ज़माने भर में खुशी
न संभालता नफरतें तो रहती कहाँ बेचारी खुशी
खुदा चाहिए शुक्र तूँ भी मेरा अदा करे
कि शैतान बैठा दबा है मेरे हौसलों के तले

सोचता है मुसाफिर बैठ कर ज़िन्दगी के दोराहे पर
गर मैं न होता तो क्या होता ज़िदगी का मंज़र

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