Thought of the day

Saturday, October 13, 2007

पिञ्जरे का पञ्छी

कैद हूँ पिंजरे में इक पञ्छी की तरह
उठ मेरे हौंसले कुछ राह तो बता

हारा हूँ जो मैं गम से तो हार नहीं है
बुलंद हौंसलों के आगे दीवार नहीं है


जो बाँध रहा हैं मुझको, वो यह पिंजरा नहीं है
जो बिखरा है टूटा सा, वो मेरा विश्वास नहीं है

बांधा है खुद ही मैनें, जिसे पाँव में अपने
कहते हैं कुछ ज़ंज़ीर, पर ज़ंज़ीर नहीं है


जो तडपता हूँ पल पल, दिल में गम नहीं है
शायद अपने हालात को मैंने समझा ही नहीं है
टकरा-टकरा कर बेदिल पिञ्जरे की सलाखों से
घायल हुए हैं पंख, काश हौसला तो नहीं है


आ न सकूँगा का बाहर यह जानता हूँ मैं
फिर क्यों उसी पिञ्जरे से लडे जा रहा हूँ मैं
हूँ मुश्किल में, पर इतना भी लाचार नहीं हूँ
कैद का ही जीवन पर बेकार करूँ क्यूँ


गाता हूँ जिस कण्ठ से वो मेरा ही सही
क्या दे रहे हैं तेरे दर्द को आराम वो कहीं
ये मेरा फडफना और बच्चों का झूम जाना
नहीं है खुला आकाश पर कुछ कम भी तो नहीं

जो जी रहा है दिल वो स्वर है मेरा
जो दौडता स्वछंद वो फडफ़डाना है मेरा
शायद अब इस पिञ्जरे को भा गया हूँ मैं
आज भी हूँ अन्दर, पर बाहर आ गया हूँ मैं

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