Thought of the day

Saturday, December 15, 2007

आज मन फिर लौट चला है

आज मन फिर लौट चला है, उस बीहड जंगल की ओर
जहाँ कभी था घर भी मेरा, नदिया बहती थी पीपल की ओट

वहीं पास इक खण्डहर भी है, कह्ती थी दादी सुन मान
यहाँ कभी सभ्यता होती थी, आज बनी है इक शमशान

वो नदिया जो सूख गई है, बह्ती थी उसमें जलधारा
मानवता का था जल था उसमें, सदाचार थे दो किनारा

मानवता के जल से सींची, थी पास एक सुन्दर क्यारी
प्रेम-पुष्प को चुन चुन कर, पूजा करती थी इक नारी


पर मानव का मन था मैला, उसने घोला विष का थैला
वो नदिया जो अमृत देती थी, हुई श्याम वर्ण जल हुआ विषैला

मानवता को लालच आया, सदाचार छोड पाँव बढाया
भूमि-भूमि पर बढता जाता, प्रेम-वाटिका में भी विष आया

प्रेम-वाटिका के सब फूल, बन गए राग-द्वेष के शूल
पूजन को जो भी था जाता, वही शूल बस लेता जाता

सुर-लोक में हुई विचित्र क्रांति, असुर जीते सब भांति-भांति
देवों ने जब आसन छोडा, सबने भू से भी मुख मोडा

फिर मेरी दादी सकुचाई, उन पर इक चुप्पी सी छाई
मैंने भी जब बहुत टटोला, दादी ने इक भेद यह खोला

वो नारी जो फूल चुनती थी, वो तेरी माँ जन्मभूमि है
आज भी वह वहीं पडी है, बस अपनी ज़िद्द पर अडी है

आएगा बेटा कोई उसका, काटेगा जो कँटीली डार
जल विषैला लौट जाएगा, प्रकट होगा फिर सदाचार

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