जिधर देखता हूँ जिंदगी बँट सी गई है। मुझे अपने स्कूल के गायक-दल द्वारा गाया एक गीत बहुत पसंद था। अब समझ आता है क्यों। उसके बोल थे –
“धरती बाँटी, सागर बाँटा, मत बाँटो इंसान को ...”
तब बोल समझ आते थे, अब अर्थ!
कितने टुकडों में बँट गया है मेरा संसार। पहले विश्व से कटा तो भारतीय हो गया। भारत से कटा तो दिल्ली का हो गया। दिल्ली से कटा तो दक्षिण दिल्ली से बाहर का निवासी। अरे मैं तो अपने ही दुनिया में प्रवासी हो गया।
सोचा कि सब से छूटो, संजाल (इंटरनेट) से सारे विश्व से जुड जाओ। पर हाय यह भी मुझे बांटने लगा। अब प्रश्न यह है कि मैं हिन्दी में ब्लॉग लिखता हूँ या अन्य किसी भाषा में।
तो सोचा वो ज़ुबान कहो जो सार्वलौकिक है। तो साहब बन गए हम भी कवि। पहुँच गए एक कवि सम्मेलन में।
अरे हाय रे इंसान कुछ तो ऐसा छोडता कि मैं जावेद अख़्तर साहब के सवाल का जवाब दे पाता –
“... सोचो मैंने और तुमने क्या पाया इंसान होकर!”
कवि समाज भी बँटा हुआ निकला। सवाल यह है ही नहीं कि आप अच्छा लिखते हैं या नहीं!
- आप किस ब्लॉग या वेबसाएट से जुडे हैं?
- आप किसकी जी-हुज़ूरी करते हैं?
- किसे खुश रख कर ज्यादा फायदा है?
- कितने दिनों से लिख रहे हैं/हो आप/तुम?
- आप किसकी जी-हुज़ूरी करते हैं?
- किसे खुश रख कर ज्यादा फायदा है?
- कितने दिनों से लिख रहे हैं/हो आप/तुम?
कोई बात नहीं जावेद साहब तालाश जारी है। कभी तो इंसान होने का कोई फायदा बताया जाएगा आपको। इंसान आकाश की ऊँचाई को बाँधने को तैयार है, कभी तो किसी का दिल भी बांधेगा!