यह भारत की विदेश नीति ही है जिसने आज भारत को विश्व पर एक अलग पहचान दिलवाई है। पर जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही राजनीति के भी। एक वह जो प्रत्यक्ष लाभ दे और एक वह जो परोक्ष में लाभ/हानि करे।
आंतरिक और बाह्य दबाव हर पदासीन राजनैतिक पार्टी झेलती ही है। सवाल है – उस दबाव से उबरने व कितना सहना चाहिए उसका विवेक।
पिछले कुछ सालों में अगर अमरीका से भारत के संबंधों में सुधार हुआ तो इसलिए नहीं कि हमारी राजनीति बेहतर थी। बल्कि इसलिए क्योंकि वहाँ के उद्योगपतियों की भारी पूँजी भारत में लगी हुई है। मैं तो हमेशा ही इस बात को कहता हूँ कि बडे उद्योग-घराने हैं जो देश की आर्थिक-राजनीति की नब्ज़ पकड कर रखते हैं। आर्थिक राजनीति विदेश नीति का निर्धारण करती है।
आगामी वर्षों में नब्ज़ वही है पर अब उसे पकडने वाले हाथ पूरी तरह विदेशी होने वाले हैं।
इसी क्रम में पिछले लेख –
आगामी वर्षों में भारत - अर्थ-व्यव्स्था
आगामी वर्षों में भारत - राजनैतिक परिवेश
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