अक्सर मन सवाल करता है, क्या कहीं ईश्वर है भी या नहीं। आइए मिलकर चलें इक खोज यात्रा पर –
* कभी कभी मन निराशा से बोझिल होता है। खुद ही में उलझे हम तारों से बातें करने लगते हैं। अचानक इक हवा का झोंका हमें छूकर जाता है और हमारी चिंता काफूर हो जाती है। बस यही ईश्वर है...
* ठिठुरती सर्दी में जब बदन पर गुनगुनी से धूप पडती है तो सहज पता चलता है बस यही ईश्वर है...
* मन आशा-निराशा, असमंजस के पालने में झूल रहा है कि अचानक कुछ ऐसा हो जाता है कि हमें अपनी दिशा मिल जाती है। बस यही ईश्वर है...
* कभी कभी मन कुछ अवयक्त भावनाओं-विचारों से भारी होता है। अचानक कुछ ऐसा पढने को मिल जाता है, लगता है “हाँ यही कहना था मुझे भी”, बस यही ईश्वर है...
मित्रो, देवालय (किसी भी धर्म के) आस्था-पुञ्ज हैं, पर ईश्वर आपकी अनुभूति में बसते हैं। कुछ इस अनुभूति को संयोग कहते हैं तो कुछ देव-दैव। पर सवाल तो यह भी है कि संयोग किसने उत्त्पन किया।
बस यही ईश्वर है...
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