यह हम सब समझते हैं कि सामाजिक परिवेश बहुत तेज़ी से बदल रह है ! शायद यही चिन्तन हमारे बुजुर्गों का भी रहा होगा ! किन्तु सच यह है कि कुछ नहीं बदला और बदलेगा भी नहीं परिवर्तन स्वयं नहीं होते, परिवर्तनों के लिए वर्तमान में कोशिश करनी पड़ती है ! किसी को इसका उत्तरदायित्व लेना ही पड़ता है, पर ले कौन? स्पष्ट उत्तर है जो परिवर्तन चाहता है!
मैं अपनी चर्चा को एक सत्यकथा के माध्यम से आगे बढ़ता हूँ!
राजा जनक अपने युग के बुद्धिजीवियों में गिनें जातें हैं ! वहीँ अष्टवक्र (आठ प्रकार के शारीरिक विकारों से युक्त) जी भी अपने ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे ! एक बार राजा जनक ने उन्हें अपनें विद्वानों कि सभा में बुलाया ! उनके शारीरिक विकारों को देखकर सभी सभासद उपहास करने लगे ! इस पर अष्टवक्र बोले, "हे राजन! मैंने तो सुना था कि तुमने मुझे विद्वानों कि सभा में बुलाया है, पर यहाँ तो चमारों कि सभा लगी है!" ऐसे वचन सुनकर राजा जनक सहित सारा पण्डित समाज बहुत रुष्ट हुआ !
तब अष्टवक्र जी बोले, "राजन चमार चमड़े का व्यापारी है अतः उसे केवल चमड़ी ही दिखती है, बुद्धि नहीं" ऐसा सुनकर राजा जनक को अपनी भूल का आभास हुआ और उन्होंने अष्टवक्र जी का यथायोग्य सम्मान किया आगे चलकर अष्टवक्र जी राजा जनक के गुरू हुए!
आइये इस कथा को आज के परिवेश में देखें ! इन्सान ने कुछ वस्तुओं का निर्माण किया अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए और वक्त के साथ अपने ही निर्माणों का गुलाम बन गया ! एक महानुभाव से मेरी मुलाक़ात हुई वे हमेशा यही कहते थे कि बसना कहीँ भी बुरा नहीं है, फँसना बुरा है और हम फंस गए !
इन्सान ने कपडा बनाया तन ढकने को और फंस गया कपडे की खूबसूरती में ! दो आपबीती सुनाता हूँ फिर आगे बढ़ते हैं!
मैं अपनी चर्चा को एक सत्यकथा के माध्यम से आगे बढ़ता हूँ!
राजा जनक अपने युग के बुद्धिजीवियों में गिनें जातें हैं ! वहीँ अष्टवक्र (आठ प्रकार के शारीरिक विकारों से युक्त) जी भी अपने ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे ! एक बार राजा जनक ने उन्हें अपनें विद्वानों कि सभा में बुलाया ! उनके शारीरिक विकारों को देखकर सभी सभासद उपहास करने लगे ! इस पर अष्टवक्र बोले, "हे राजन! मैंने तो सुना था कि तुमने मुझे विद्वानों कि सभा में बुलाया है, पर यहाँ तो चमारों कि सभा लगी है!" ऐसे वचन सुनकर राजा जनक सहित सारा पण्डित समाज बहुत रुष्ट हुआ !
तब अष्टवक्र जी बोले, "राजन चमार चमड़े का व्यापारी है अतः उसे केवल चमड़ी ही दिखती है, बुद्धि नहीं" ऐसा सुनकर राजा जनक को अपनी भूल का आभास हुआ और उन्होंने अष्टवक्र जी का यथायोग्य सम्मान किया आगे चलकर अष्टवक्र जी राजा जनक के गुरू हुए!
आइये इस कथा को आज के परिवेश में देखें ! इन्सान ने कुछ वस्तुओं का निर्माण किया अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए और वक्त के साथ अपने ही निर्माणों का गुलाम बन गया ! एक महानुभाव से मेरी मुलाक़ात हुई वे हमेशा यही कहते थे कि बसना कहीँ भी बुरा नहीं है, फँसना बुरा है और हम फंस गए !
इन्सान ने कपडा बनाया तन ढकने को और फंस गया कपडे की खूबसूरती में ! दो आपबीती सुनाता हूँ फिर आगे बढ़ते हैं!
पिछ्ले दिनों समय की अधिकता के कारण मैं कहीं नौकरी कर रहा था! सामान्यतः हम आफिस में पेंट कमीज़ ही पहनते थे ! एक दिन मैं छुट्टी पर था और किसी काम से आफिस बुला लिया गया ! मैं कुर्ता पायजामा पहने आफिस पहुंच गया, अपना जरूरी काम किया और घर लौट आया ! अगले दिन आफिस में इस बात पर सबने ख़ूब बवाल किया कि Office Decorum खराब कर रहे हो ! मैं जानता था, जानता हूँ कि Office Decorum टूटा था ! पर मन मेरा सवाल बसने और फंसने का ही कर रहा था और मैं वह सोच रहा था जो अष्टवक्र जी ने राज-सभा में कहा था!
हाल ही के दिनों में किसी विवाह समारोह पर मुझे आमंत्रित किया गया इस हिदायत के साथ कि मैं कुर्ता पायजामा न पहनकर पैंट-कोट पहनूं ! इस बार मैंने तुरंत पूछ ही लिया कि समाहरोह में आवश्यकता मेरी है या मेरे कपडों की !
सवाल यह इतना महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि क्या पहना जाए! सवाल यह है कि कपड़ा तन ढकने के लिए है या मन ढकने के लिए ? और अगर मन ढकने के लिए तो बदलते समाज से शिक़ायत क्यों?