बात है 2000 की सर्दियों की। अमरीका से कोई डॉक्टर मिलने आए हुए थे। रात्रिभोज के बाद हम सभी बैठे बातें कर रहे थे। अचानक डॉक्टर साहब ने यही प्रश्न मुझसे किया। मेरा उत्तर था –
“यहीं है, इसी पृथ्वी पर, इस कमरे में”। फिर उनकी आँखों में नजरें गढाईं और अपनी बात पूरी की – “मैं और आप”
उनकी नजरें मुझसे सवाल कर रही थी। सो मैंने आगे कहा – क्या है राक्षस जाति – तामसिक भोजन, तामसिक जीवन। तामसिक जीवन के बाहरी लक्ष्ण क्या हैं – सूर्यास्त के बाद भोजन और जगना (निशाचर), विकृत दांत आदि।
अब मेरा उनसे सवाल था – मध्यरात्रि में बैठे हम क्या हुए। तो उनका सवाल था, मगर विकृत दांत तो आजकल बहुत आम हैं?
तो मित्र इसीलिए तो यह कलयुग है। और याद करें भगवान कृष्ण का वचन – “जब जब धर्म की हानि होगी, तब तब संतजनों के उद्धार करने और असुरी शक्तियों का नाश कर धर्म को पुनः संस्थापित करने हेतु मैं अवतार लेता रहूँगा”।
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