मेरी उम्र के अधिकांश लोग संयुक्त परिवार में रहे होंगे। यही जीवन शैली थी तब। 1977-1984 के अंतराल में मैं अपने माता-पिता और दो बहनों के साथ जिस कमरे में रहता था वह इतना छोटा था कि पलंग और एक लोहे की अल्मारी रखने के बाद कमरे में सीधा चलने भर की जगह नहीं थी। इस लेख की चर्चा अपनी दीदी से की तो उन्होंने याद दिलाया कि मन्दिर भी लोहे की अल्मारी के ऊपर ही बना था – क्योंकि और कोई जगह ही नहीं थी कमरे में।
पीछे मुडकर देखता हूँ तो कुछ भी सही नहीं था वास्तु की दृष्टि से उस कमरे में – पर सब सही था। हमारी पढाई, हमारे परिवार की सेहत, पिताजी का व्यापार – सब अच्छा था। अब मेरा सवाल है उन सभी से जो वास्तु के पीछे दीवाने हैं या वास्तु के नाम पर लूट मचा रहे हैं कि कहाँ जगह थी वास्तु की हमारे जीवन में। आज साधन बढे, घर बडे हो गए तो आज वास्तु की भी जरूरत है।
मैं उन्हें तो नहीं रोक सकता जो वास्तु के नाम पर लूट रहे हैं। पर आपसे, जो पात्र बन रहे हैं, विनोद होकर तो कह ही सकता हूँ – हे बन्धु आप ही मदद कर सकते हो इस लूटपाट को रोकने में।
पीछे मुडकर देखता हूँ तो कुछ भी सही नहीं था वास्तु की दृष्टि से उस कमरे में – पर सब सही था। हमारी पढाई, हमारे परिवार की सेहत, पिताजी का व्यापार – सब अच्छा था। अब मेरा सवाल है उन सभी से जो वास्तु के पीछे दीवाने हैं या वास्तु के नाम पर लूट मचा रहे हैं कि कहाँ जगह थी वास्तु की हमारे जीवन में। आज साधन बढे, घर बडे हो गए तो आज वास्तु की भी जरूरत है।
मैं उन्हें तो नहीं रोक सकता जो वास्तु के नाम पर लूट रहे हैं। पर आपसे, जो पात्र बन रहे हैं, विनोद होकर तो कह ही सकता हूँ – हे बन्धु आप ही मदद कर सकते हो इस लूटपाट को रोकने में।
वास्तु की वस्तुता को समझो – वास्तु भाग्य के अधीन है, भाग्य वास्तु के अधीन नहीं।
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