ईश्वर भी बहुत दयालु हैं। जब-जब मन दुविधा में होता है तो बहाने से अपना संदेशा भेज ही देते हैं।
पिछले दिनों से बहुत दुविधा में था। बस यही लगता था कि कहीं ठहर सा गया हूँ – पर क्यों? चलूँ तो चलूँ कैसे और किस ओर? तो ईश्वर ने अपनी किसी प्यारी संतान को संदेशवाहक बनाकर भेज दिया।
महापुरूष ने चर्चा शुरू की और कथा सुनाई। एक सेठ किसी तीर्थ पर धर्मशाला बनवा रहा था। अपनी धन-दौलत भी सब दान कर आया था। जो भी मिलता उसे बताता कि इतना धन-धान्य था पर एक पल में सब दान कर आया हूँ और अब धर्मशाला बनवा रहा हूँ।
महापुरूष ने अंतराल लिया और कहना शुरू किया – देखो क्या माया है ईश्वर की। जब धन था, तो होने का अभिमान, अब नहीं है तो दान करने का अभिमान।
मुझे मेरा संदेशा मिल गया – कभी कभी व्यक्ति ईश्वर के इतना करीब हो जाता है कि निकटता ही अभिमान का विषय बन जाती है। अभिमान की जंजीर पाँव में बाधें घूमता है और सोचता है “ठहर सा गया हूँ – पर क्यों”
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